Last modified on 23 अगस्त 2018, at 21:30

कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था / शहरयार

कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था।

सब अपने तौर से जीने के मुद्दई थे यहाँ
पता किसी को मगर रम्ज़े-काएनात न था

कहाँ से कितनी उड़े और कहाँ पे कितनी जमे
बदन की रेत को अंदाज़-ए-हयात न था

मेरा वजूद मुनव्वर है आज भी उस से
वो तेरे क़ुब का लम्हा जिसे सबात न था

मुझे तो फिर भी मुक़द्दर पे रश्क आता है
मेरी तबाही में हरचंद तेरा हाँथ न था