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कहीं नहीं / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

हो रही विघातक सिद्ध आज बाबा आदम की लिखी बात,
दुख का कारण हो रही मनुज के लिए पुरानी लिखी बात।
इ´्जील, वेद, गीता, पुराण, कुरआप आदि जो धर्म-ग्रन्थ,
जिनमें अनन्त विज्ञान-ज्ञान, किं, कुतः, कथं का समाधान।
जिनमें न किन्तु हतभागों के दुख का निदान, सुख का विधान,
है सिर रखने को भी न कहीं मानव-पुत्रों के लिए स्थान।

पाषाण-शिलाओं पर देखो चढ़ते कुंकुम, ईंगुर, चन्दन,
घी के चौमुख दीपक जलते, करते मकरन्द सुमन-वर्षण।
शव की समाधि पर भी ज्योतित रंगीन पिरामिड ताजमहल,
पर कर देते जो चिन्ता में ही आँखों-आँखों में बिहान,
है सिर रखने को भी कहीं न उन मनु-पुत्रों के लिए स्थान।

हे कार्लमार्क्स के वरद पुत्र, हे कोतल के अरबी घोड़े!
नाहक मारे-मारे फिरते खाकर क्यों स्तालिन के कोड़े?
श्लोकत्व शोक को दे न सकेगा मतवादों का विज्ञापन!
माकर््िसज्म गलत, फासिज्म गलत, सब इज़्म जीर्ण चिथड़े समान!
है सिर रखने को भी न कहीं मानव-पुत्रों के लिए स्थान!

मत मानो अपने तर्कवाद को ही जन-युग का उन्नायक!
मानो मत अपने मूल्यांकन को ही भविष्य का निर्णायक!
है मात्र एक ही अंश सत्य का, पूर्ण नहीं तेरा दर्शन!
मैं हूँ न किसी का अन्ध भक्त, कैसे लूँ तेरी बात मान!
सुन लीं मैंने तेरी बातें, अब धो लेने दो मुझे कान!
है सिर रखने को भी न कहीं मानव-पुत्रों के लिए स्थान!

सुनता हूँ सत्य-अहिंसा से है परे नहीं कोई ईश्वर!
बापू के हैं सच्चे सपूत मानव-समाज के प्रिय सहचर!
उफ, राम बचाए! पता न था, वे हैं न देवता, रजनीचर!
हैं राम-राज्य में भी रावण, दूषण, विराध, खर विद्यमान!
पर सिर रखने को भी न कहीं मानव-पुत्रों के लिए स्थान!

विहगों के लिए मुकुल-गुम्फिल डालों में स्वर्ण-नीड़ सुन्दर!
दीमक के लिए बँबियाँ हैं, विषधर भुजंग के लिए विवर!
हैं लोमड़ियों के लिए मान्द पृथिवी-तल में लम्बी सुरंग!
शेरों के लिए गुफा दुर्गम, विश्राम-कुंज, छाया-वितान!
पर सिर रखने को भी न कहीं मानव-पुत्रों के लिए स्थान!

(‘जनता’, 31 दिसम्बर 1950)