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कहीं नहीं है बंगाल / शंख घोष / जयश्री पुरवार

उस दिन रात को स्वप्न में देखा मैंने
उड़कर चला गया हूँ सुदूर भविष्य में
डैने के झटके से उलझ गए हैं नाम धाम
अपने को ही ढूँढ़ता फिर रहा हूँ पथ में ।

कुछ-कुछ जाना-पहचाना लग रहा है,
पर कुछ भी नहीं है स्पष्ट
जड़ उखड चुकी है, पर फिर भी खुली हुई हैं आँखें
अचानक देखता हूँ कि मेरे बिलकुल पास
आ जाता है एक पथ-प्रदर्शक।

मेघों की परम्परा तोड़कर वह दिखाता है
शरीर को मखमल में लपेटता है ,
उसके बाद अन्तिम पूर्ण श्वास लेकर
आराम से उँगलियाँ फैलाकर वह बोलता है,

‘वह देखो , वह नीचे देखो आँखें खोलकर’ --
कहते हुए सिरा खो जाता है उसकी आवाज़ का,
‘बंगाल में एक कोलकाता तो ज़रूर है
पर उस कोलकाता में कहीं नहीं है बंगाल ।‘

मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार