कुहासा
गहरा हुआ है जब-जब
धुएँ के समंदर में बदलती गई है सुबह
धूप
जब-जब चढ़ी है अपनी ऊँचाई पर
सोने की चादर की तरह झलमलाई है दोपहर
अन्धेरा
उतरा है आख़िरी गहराई तक जब-जब
काजल-काजल होता चला गया है परिदृश्य
फिर भी-फिर भी
रहा है सूरज कहीं न कहीं
कहीं न कहीं रही है थोड़ी बहुत छाँव
थोडा बहुत उजाला रहा है कहीं न कहीं तब भी
रचनाकाल : 1994, जौनपुर