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कहीं न कहीं / संज्ञा सिंह

कुहासा
गहरा हुआ है जब-जब
धुएँ के समंदर में बदलती गई है सुबह

धूप
जब-जब चढ़ी है अपनी ऊँचाई पर
सोने की चादर की तरह झलमलाई है दोपहर

अन्धेरा
उतरा है आख़िरी गहराई तक जब-जब
काजल-काजल होता चला गया है परिदृश्य

फिर भी-फिर भी
रहा है सूरज कहीं न कहीं
कहीं न कहीं रही है थोड़ी बहुत छाँव
थोडा बहुत उजाला रहा है कहीं न कहीं तब भी


रचनाकाल : 1994, जौनपुर