कहो गीतों से
कि वे सन्यास ले लें
बेतुका है यह समय
वे लय-तुकों की बात करते
नेह का दीपक जलाते
उसे आंगन-घाट धरते
देखते वे नहीं
घर में चढ़ीं कितनी अमरबेलें
कभी वंशीधुन
कभी वे शंख का हैं नाद जीते
किसी भोले देवता के संग
युग का जहर पीते
चाहिये उनको
कि वे भी छल-कपट के खेल खेलें
याद करते रामजी के राज की वे
शाह अबके सभी अंधे
संत-बानी साधते वे
शब्द अब तो हुए धंधे
नियति उनकी
वे समय के अनर्गल संवाद झेलें