शेष रहे
थोड़ी सी कहीं चिंगारी
गोकि
शाख से जुड़े रहने की
रस्म निभाने की आदत नहीं
कुछ पत्तों की
धुंधलके भरी ऎसी ही इक भोर में
ढूंढते रौशनी की किरन
यकीन है मुझे कि
इकट्ठे होंगे जरूर
इसी आस में अकुलाते
शाख से कुछ टूटे पत्ते
बना कर स्वयम को समिधा
प्रजवल्लित करेंगे
विशाल तेजपुंज
और दमक उठेंगे
म्लान सभी कृश काय मुख
कह दो अंधेरो से कि
अब उजाले बहुत दूर नहीं