अब तुम्हारी नज्मों में
नहीं होती मेरे नाम की कोई नज्म
मेरी कलम खामोश नजरों से
तकती रहती है अपने अनकहे लफ्ज़
जो सफहों पर उदासी के घेरे में बैठे
अनचाही लकीरें खींच रहे होते हैं
जब तुमसे मुहब्बत नहीं थी
हवा लटबोरी सी
जकड लेती ज़ख्मों को
दर्द गुज़र जाता ठहाके मार
खत्म हो चुकी खुशी
मुहब्बत की खिड़की कसकर बंद कर लेती
भीगीं पलकें काट देतीं कैंची से
खिले गुलाब के सुर्ख रंग
आज जब तुम्हारे नाम के अक्षर
अँधेरी रातों में मुस्कुराने लग पड़े थे
और हंसने की माकूल वजह मिल गई थी
नहीं है अब तुम्हारी नज्मों में
मेरे नाम का कोई अक्षर ....