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क़र्या-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये / परवीन शाकिर

कर्या ए जाँ में कोई फूल खिलाने आए
वो मिरे दिल पे नया ज़ख़्म लगाने आए

मिरे वीरान दरीचों में भी ख़ुशबू जागे
वो मिरे घर के दर ओ बाम सजाने आए

उससे इक बार तो रूठूँ मैं उसी की मानिंद
और मिरी तरह से वो मुझको मानाने आए

इसी कुचे में कई उसके शनासा भी तो हैं
वो किसी और से मिलने के बहाने आए

अब न पूछूंगी मैं खोये हुए ख़्वाबों का पता
वो अगर आए तो कुछ भी न बताने आए