कितना नायाब है
क़लमी बाँस का वह पौधा
विजन वन में
उसकी रोयेदार चन्द कलगियाँ
चमक रहीं। सुब्ह के सूर्य में
आसपास है अनन्त आकाश
वह डोल रहा दूब के गलीचे पर
गर्व से सुसज्जित खड़ा है
पहाड़ी धार से आती
धूप में
उजलाई है उसकी छवि
दिए हैं कलात्मक अँधेरे ने
उसे पेन्सिल शेड
वह लग रहा किसी चतुर चित्रकार का
एक सजीव लयबद्ध छवि बिम्ब
एक परिन्दे ने की है डुपडुप
दूसरे ने टीं वीं टुट टुट
तीसरे ने अपनी हुम हुम
गूँज रही वन में दूर दूर तक
झिंगुरों की कीरवाणी
मुझे लगा सब कुछ लयबद्ध
सरकण्डे
क़लमी बाँस के
डोलते रहे देर तक हवा में ।।