कब तक तेरी अना से मेरा सर बचा रहे
ये भी तो कम नहीं कि मेरा घर बचा रहे
मुफ़्लिस को शबे-वस्ल पशेमाँ न कीजिए
मेहमाँ के एहतेराम को बिस्तर बचा रहे
रहियो मेरे क़रीब, मेरे घर के सामने
कुछ तो कहीं निगाह को बेहतर बचा रहे
बेशक़ दिले-ख़ुदा में ज़रा भी रहम न हो
आँखों में आदमी की समन्दर बचा रहे
मस्जिद न मुअज़्ज़िन न ख़ुदा हो कहीं मगर
मस्जूद की निगाह में मिम्बर बचा रहे
शाहों का बस चले तो ख़ुदा की क़सम मियाँ
क़ारीं बचें कहीं, न ये शायर बचा रहे
क़ातिल ! तेरा निज़ाम बदल कर दिखाएँगे
सीने में आग, हाथ में पत्थर बचा रहे !