Last modified on 17 मार्च 2017, at 11:03

क़ाफे द फ़्लोर / विष्णुचन्द्र शर्मा

पकी दाढ़ी के
आलेक्सांद्र का
लंबा चेहरा
हँसा
और हँसता रहा।
उसकी हँसी में मुझे नजर
आया ज्यां पॉल सार्त्र।

काफे़ द फ़्लोर के
एक कोने में सार्त्र
अपने होने
और न होने का
आखरी पन्ना लिख रहे थे।

मैं काफे़ के
अंदर से बाहर घूम आया।
काफ़े के चेहरे
भूल चुके थे
सार्त्र और बेउआर को!

मैं खोजता रहा
वह कोना
जहाँ दोनों नकार रहे थे
खुद को।
विरोध के बावजूद
थे ‘ग गॉल’ की
सत्ता के बाहर।

मैनेजर की
हँसती हुई आँखें
उसी कोने पर
अटक गई थीं।

काफे़ के ठहरे हुए
चेहरों पर
एक चमक दौड़ गई।

मैंने याद किया
कब काफे़ के उदास वेटर
ज्यां पॉल सार्त्र को
आखरी विदा
दे रहे थे।

पेरिस की
चौड़ी सड़क गुलज़ार थी
और चेहरे रंगीन।

जिंदगी से भरी-पूरी
पेरिस को मैं
सार्त्र के बिना
देखता रहा
सिर्फ बिजली के खम्भे पर
दर्ज थे

दो नाम
सार्त्र और बोउआर।

फिर मैं बावले कवि की तरह
खींचता रहा
लोगों की,
भवनों की फोटो।

हर कोने में
नजर आए मुझे
उदास ज्यां पॉल सार्त्र
बस काफ़े द फ़्लोर
गुलज़ार था।