तुमने न जाने क्या सोचकर
मुँह फेर लिया और बंद कर लिए
अपने हृदय के कपाट मेरे लिए
पर मेरी मासूम-सी चाहत ने
हार नहीं मानी
कभी तुम्हारी आँखों की खिड़कियों से झाँक
तुम्हारे प्रत्युत्तर का इंतजार करती रही
तो कभी
शब्दों की सीढ़ी के सहारे
तुम्हारे दिल के आंगन में,
उतरने को प्रयासरत रही,
पर न तुमने
अपनी जिद छोड़ी ना मैंने अपनी चाह
कितना भी छुपाना चाहो,
नहीं बच सकते..
कैद कर लिया है मैंने तुम्हे अपनी यादों में…
और तुम्हारी भाव-भंगिमा,
आचार-विचार एवं शब्दों को
अपनी रचनाओं में
जिनसे जब चाहूँ मिल सकती हूँ मैं
बिना किसी प्रत्युत्तर की प्रत्याशा में..