उधर उस काँच के पीछे पानी में
ये जो कोई मछलियाँ
बे-आवाज़ खिसलती हैं
उनमें से किसी एक को
अभी हमीं में से कोई खा जाएगा,
जल्दी से पैसे चुकाएगा—
चला जाएगा।
फिर इधर इस काँच के पीछे कोई दूसरा आएगा,
पैसे खनकाएगा,
रुपए की परचियाँ खिसलाएगा,
बिना किसी जल्दी के समेटेगा, जेब में सरकाएगा
दाम देगा नहीं, वसूलेगा
और फिर हम सब को—एक-एक को—एक साथ
और बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे खाएगा
खाता चला जाएगा,
वैसी ही बे-झपक आँखों से ताकता हुआ
जैसी से ताकती हुई ये मछलियाँ
स्वयं खाई जाती हैं।
ज़िन्दगी के रेश्त्राँ में यही आपसदारी है
रिश्ता-नाता है—
कि कौन किस को खाता है।