Last modified on 4 जनवरी 2011, at 12:59

काँटा हुई तुलसी / कैलाश गौतम

लहलहाते खेत जैसे दिन हमारे
थार कच्चा खा गए ।

सूखकर काँटा हुई तुलसी
हमारी आस्था
धर्म सिर का बोझ, साहस
रास्ते से भागता
      शाप जैसे भोगते
      संकल्प मृग हम तृण धरे पथरा गए ।।

पर्व जैसे देह के जेवर
उतरते जा रहे
संस्कारों की बनावट आज
कीड़े खा रहे
      गुनगुनाते आइने थे
      वक़्त के हाथों गिरे चिहरा गए ।।

ना-नुकुर हीला-हवाली और
अस्फुट ग़ालियाँ
भाइयों की हरक़तें हैं
झनझनाती थालियाँ
      एक अनुभव साढ़े-साती
      रत्न जैसे दोस्त भी कतरा गए ।।