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काँपता संसार, देवी / अमरेन्द्र

काँपता संसार, देवी,
रोक लो संहार, देवी !

रक्त से जिह्ना तुम्हारी
लाल रत-रत हो रही है,
शिव नहीं सोए चरण में
चेतना ही सो रही है;
नय-अनय-निर्णय कभी क्या
अस्त्रा जग में कर सकेगा ?
द्रोह-हिंसा से कभी भी
पाप ऐसे मर सकेगा ?
देवताओं के दुखों का
यह नहीं उपचार, देवी !

कुछ विनय, कुछ प्रीति से ही
अघ, दुराचारी रुकेगा,
ऋषि-चरण-आशीष से ही
यह हठी पर्वत झुकेगा;
रक्त बूंदों की जगह पर
स्नेह का अब मेघ बरसे !
यह धरा करुणा-दया को
अब न ऐसे और तरसे !
नर भले लाचार-निर्बल
तुम नहीं लाचार, देवी ।