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काँप रहे सिंहद्वार / कुमार रवींद्र

भूकम्पित आसन हैं
             सूने हैं सभागार
 
आतंकित हैं गवाक्ष
मूर्छित मीनारें हैं
राजमहल के सीने में
पड़ी दरारें हैं
 
आशंकित रंगमहल में
             पलते चीत्कार
 
जनपथ पर भीड़ खड़ी
राजपथ अकेले हैं
ख़ूनी आतंक कई
सूरज ने झेले हैं
 
उजली मेहराबों के
           नीचे है अंधकार
 
जर्जर दीवारों पर
अंधों के पहरे हैं
खण्डहर के आर-पार
सन्नाटे गहरे हैं
 
डरे हुए मंदिर हैं
         काँप रहे सिंहद्वार
 
घूमते नगर भर में
परिवर्तन अंधे हैं
सारी आस्थाओं के
कटे हुए कंधे हैं
 
प्रेत-मन हवाओं में
         खंडित सारे विचार