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काका / मनीष मिश्र

आज वे नही हैं
जाने कहाँ भटक रहे होंगे।
शायद शब्दों के पड़ोस में
खबरों के तिलस्मी बियाबान में
छपते हुये ताजे अखबार की गर्मी के पास
जाने कहाँ ................
वे खबर-नवीस थे-
सूरज नहीं अखबार तय करते थे उनकी सुबह
ना जीतने की शर्त, ना हारने का मातम
न सपनों की डोर, ना जीवन की छोर।
आज उनकी अनुपस्थिति में
उनके खबरों की हजारों कतरनें
उनकी याद में फडफ़ड़ाती हैं
कई ताज़ा खबरें उनके घर के पास
दिपदिपाती हैं।