चाचा के गोफिए से
छूटा कंकड़
गोली के वेग से
जा लगा जब
बाजरे के सिट्टे बैठी
दाना चुगती
मस्ती में पूंछ फुदकाती
चिडिय़ा की पटपड़ी पर।
तब
पहली बार
मेरे भीतर कहीं
कुलबुलाया कुछ
और तगरे पर
कोयले से ख्ंिाच गईं
कुछ आडी-टेढ़ी पंक्तियां।
तब से
कागज़्ा काले
कर रहा हूँ
अनवरत।
न जाने कब
जीवित होगी वह चिडिय़ा,
फुदकाएगी
अपनी प्यारी-सी पूँछ,
बैठ बाजरे के सिट्टे पर।
2003