काज न पंडित दंडित मुडित, दान दिये तप तीर्थ अन्हाये।
काज नहीं कलि काव्य किये, कछु व्याधि बढ़े तन तोरि लचाये॥
काज नहीं धन जोरि करोरन, फैलि फिरै थिरमा थिरकाये।
लै गुरु ज्ञान कहै धरनी, निज काज है केवल तत्त्व के पाये॥15॥
काज न पंडित दंडित मुडित, दान दिये तप तीर्थ अन्हाये।
काज नहीं कलि काव्य किये, कछु व्याधि बढ़े तन तोरि लचाये॥
काज नहीं धन जोरि करोरन, फैलि फिरै थिरमा थिरकाये।
लै गुरु ज्ञान कहै धरनी, निज काज है केवल तत्त्व के पाये॥15॥