Last modified on 12 दिसम्बर 2014, at 23:12

कातिल सपना / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

एक सबला रूपसी ने मन झकझोड़ा
 क्षण स्नेह गात लगाकर हिय को तोड़ा
तब नहीं लगी वह कोई प्रीति पराई
मुझे मदहोश अदाओं से खूब रिझाई
पल में सहला जैसे हो उर्वशी चबाई !
मैंने नेह गेह पट जड़ दिया था ताला
मन में मंजुल रम्भा पर हाथ में माला
बाह्य वैरागी रूप हठात समझकर
उगलाई सबकुछ "प्रेयस" कहकर
निश्शंक सुधि -वुधि अंगार कर दिया
मेरे शून्य आत्मा में प्यार भर दिया
बाँक जड़ों से निकली अब गोल वितान
कलुष कूप में पसरा नवल विहान
भरे निदाध में शीतल बूँद बरसाई
सूखे पत्तों में हरित प्रसून भर आई
एकाएक अब वह हो गयी है ओझल
खिलने से पहले विखर गई कोंपल
अमानत वही पुरातन पथ अपना
प्रेयसी नहीं वह तो थी "कातिल सपना"