Last modified on 30 अक्टूबर 2013, at 11:25

कादम्बरी / पृष्ठ 112 / दामोदर झा

69.
लखिते चन्द्रापीड़क सब टा बुद्धि हेरयलनि
कादम्बरी वियोगे मरली ई बुझि पड़लनि।
चौंकल आँखि तरलिकाके पूछल नहि बाजल
ओ टूक टुक मुख ताकि अश्रुजल बहबय लागल॥

70.
लगली कहय महाश्वेता अपनहि धैरल धय
हम जनमलि छी सब हितवर्गक नाश करै लय।
नहि चण्डालक जाति दैव हमरा जनमओलनि
किन्तु काज तकरहुसँ बढ़ल हमर निरमओलनि॥

71.
हम हत्यारिन नीच जन्म जन्मक छी पापी
इष्ट मित्र सब नाशल मातु पिता सन्तापी।
हमरासँ परिचयक लाभ अपने भल पओलहुँ
सुहृद बनल हमरा हाथे सर्वस्व गमओलहुँ॥

72.
पूछथि चन्द्रापीड़क चौंकि की देवि कहै छी
साफ कहू घबड़ाय हृदय नहि विषय गहै छी।
कहल महाश्वेता हम निष्ठुर कहबे करबे
वज्र हृदय छी कतबो किछ हेतै नहि मरबे॥

73.
कादम्बरी भवनमे केयूरकसँ सुनलहुँ
आज्ञा जनकक पाबि अहाँ उज्जयिनी गेलहुँ।
दोगुन भेल विराग ततहि शिर धय हम बैसल
हुनका आनि कयल की मन चिन्तामे पैसल॥