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कादम्बरी / पृष्ठ 159 / दामोदर झा

14.
किंकर्तव्यविमूढ़ भेलि ई अथ उतमे उठियो नहि पओलनि
तावत चन्द्रापीड़ भुजासँ हिनक पीठपर छान लगओलनि।
उठि बैसथि कोरामे राखथि पुनि पुनि हिनक अधररस पीबथि
कहथि सुधाशोधित अछि एहिमे पीलासँ मुइलो जन जीबथि॥

15.
प्रिये, अमृतकेर वंश जनमलहुँ अमृत भरल अछि सगरे तनमे
मुइल छलहुँ हम ठोर पिअओलहुँ जीलहुँ अजगुत भेल भुवनमे।
अहाँ वियोगे शूद्रक तनुमे भोगल शाप ताप बड़ पओलहुँ
ततहु वियोगानल पजारि क’ अही मृत्युकेर कारण भेलहुँ॥

16.
भेल दूर ओ शाप पाप लगले हम एतय अही लय अयलहुँ
ई शरीर प्रिय भेल अहाँ केर ते एकरा जुगता हम रखलहुँ।
आब अहाँक जेहन इच्छा हो भूतल चन्द्रलोक वा रहबे
जहिना सुख मानत अहाँक मन तहिना सबटा साधन गहबे॥

17.
एतबा सुनि दृग हर्ष नोर भरि झट उठि माथ पयर पर राखल
ळमहूँ जीलहुँ आइ एते दिन मुइले छलहुँ नाथ, ई भाषल।
पुनि ओ कहल कपिंजल कर गहि नभसँ पुण्डरीक उतरै छथि
हुनको शाप सङहि सङ पुरलनि अहिंक सखीके मन सुमिरै छथि॥

18.
कादम्बरी उठलि झट गरदनि दौड़ि महाश्वेताकेर पकड़ल
सब क्यो जीवित भेल चलू देखू कहि सगर देह तनु जकड़ल।
तावत पुण्डरीक चन्द्रापीड़क लग उतरि परस्पर धयलनि
मोती हार सैह छल उर पर गरदनि मिला विरह लघु कयलनि॥