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कादम्बरी / पृष्ठ 70 / दामोदर झा

45.
लगले उठि दुहु चललि महाश्वेता हुनकालय पूछल
रहता तावत कतय कुमर सुनि सकुचल कहल बिना छल।
की ई प्रश्न करै छी सखि ई जैखनसँ आयल छथि
घर आङन वा देहहु मे नूतन लायल छथि॥

46.
नीक लगैनि जतय हिनका वा अहाँ जाहि ठाँ रखिअनि
रहता ततय मर सम्पति सँ आदरभाव जनबिअनि।
कहल महाश्वेता क्रीड़ागिरि जे मणिरचल महल अछि
ततय करथु सुखवास कुमर ओ हिनके योग्य बनल अछि॥

47.
सखिगण संग पठा हुनका दुहु कुमरि चललि जननी-घर
चन्द्रापीड़ जाय मणिमन्दिर बैसथि मृदु शयनीपर।
केयूरक सङ सकल सखीगण नेह भाव दरसाबय,
जे अप्राप्य मनुष्य भवनमे से सब वस्तु जुटाबय॥

48.
कयलनि ततय स्नान अनुलेपन भोजन मधुर सुधा सन
सादर देथि मृदुर शय्या पर पान युवतिगण छन छन।
केयूरक दुहु पयर दबाबय सखि सब व्यजन करै छल
नेह समुद्रक बीच कुमर छथि सब सुधि बुधि बिसरै दल॥

49.
कादम्बरी मातृगृहसँ अपना घरम पद धारल
शय्यापर ओंघड़ाय मनहि मन तखनुक बात बिचारल।
ळम तँ छलहुँ प्रतिज्ञा कयने पुरुषक मुह नहि देखब
यावत दुखी महाश्वेता बिधवा अपना के लेखब॥