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कामना / अंतराल / महेन्द्र भटनागर

कामना मेरी!

गगन-सी बन,
विकल सिहरन,
प्राण में रह कर समायी री नहीं पाती
सघन नव-बादलों-सी कल्पना मेरी!

सरल दीपक,
चमक अपलक,
वंदना के स्वर हृदय में आज तो बंदी!
सजी है पूर्ण जीवन-अर्चना मेरी!

जलन खोयी,
अमृत धोयी,
जल रही अविरल अकम्पित लौ हृदय की यह
सतत उद्देश्य-लक्षित साधना मेरी!

रचनाकाल: 1949