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कामना / महेन्द्र भटनागर

कभी तो ऐसा हो
कि हम
अपने को ऊँचा महसूस करें,
भले ही
चंद लमहों के लिए।

कभी तो ऐसा हो
कि जी सकें हम
ज़िन्दगी सहज
कृत्रिम मुसकान का
मुखौटा उतार कर,
बेहद तरस गया है
आदमी
सच्चे क़हक़हों के लिए !

कभी तो हम
रू-ब-रू हों
आत्मा के विस्तार से,
कितना तंग-दिल है
आदमी
अपरिचित
परोपकार से !

अंधकार भरे मन में
कभी तो
विद्युत कौंधे !
बड़ा महँगा
हो गया है
रोशनी का मोल ;
अदा कर रहा
हर आदमी
एकमात्रा कृपण महाजन का
मसख़रा रोल !

कभी तो हम
तिलांजलि दें
अपने बौनेपन को
अपने ओछेपन को,
और अनुभव करें
शिखर पर पहुँचने का उल्लास !
कभी तो हो हमें
भले ही
चंद लमहों के लिए,
ऊँचे होने का अहसास !