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काया अर म्हैं / संजय आचार्य वरुण

वांरै कैवण मुजब
अळगो-अलायदो है
म्हारो होवणो
म्हारी काया रै होवणै सूं।
ठीक है, मान लूं म्हैं
कै नीं हूं म्हैं
फगत ओ सरीर
नीं हूं सरीर
पण सरीर ही
क्यूं संभव करै
थारै खातर
म्हारै होवण नैं।
 
होवतो रैवूंला
काया रै बगैर कीं भी
पण म्हैं
ओ ‘म्हैं’ तो
पक्कायत नीं होय सकूंला
इण खोळियै रै नीं रैया।