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कालप्रवाह / भुवनेश्वर सिंह 'भुवन'

पड़ल छथि बन्धनमे मृगराज।
भरल नयन नहि चएन हृदयमे छिन्नभिन्न सब साज।
दुर्गति परम प्रगतिमय पसरल अछि भारी भ्रम-जाल,
वक हँसैत-अछि कुटिल हँसी, कलपै छथि क्षुब्ध मराल,
जे कँपैत छल डरसँ थरथर, आब न तकरो लाज,
पड़ल छथि बन्धनमे मृगराज।
उर-सागर गंभीर शान्त दबकल अछि प्रलय-तरंग
नियति नचैं अछि नग्न नृत्य, अछि काल बनल बदरंग,
मरत जकर क्रोधानलमे जरि पट दए, तखन अकाज,
पड़ल छथि बन्धनमे मृगराज।
वैह शक्ति, साहस अछि, भेटब तइओ दुर्लभ ग्रास,
सुधादान जे कए सकैत छथि, मिटए न तनिके प्यास,
डूबत हाय! कियैं नहि, बूडल जखन विवेक-जहाज
पड़ल छथि बन्धनमे मृगराज।
भेनहि की हो स्पन्दन, तनमन पराभूत, निष्प्राण,
छटपटाइ अछि आइ कण्ठगत भए ज्वालामय गान,
लैछ लेखनी रुद्ध श्वास, जागत की तखन समाज,
पड़ल छथि बन्धनमे मृगराज।