औरत ने जब भी
मुहब्बत का गीत लिखा
इक काला गुलाब खिल उठा है उसकी देह पर
रात ज़िस्म के सफ़हों पर लिख देती है
उसके कदमों की दहलीज़
बेशक़ वह किसी ईमारत पर खड़ी होकर
लिखती रहे दर्द भरे नग़में
पर उसके ख़त कभी मुहब्बत में तर्जुमा नहीं होते
इससे पहले कि होंठों पर क़ोई शोख़ हर्फ़ उतर आये
फतवे पढ़ दिये जाते हैं उसकी ज़ुबाँ पर
कभी किसी काले गुलाब को
हाथों में लेकर गौर से देखना
रूहानी धागों से बँधी होंगी उसके संग
कोई मुहब्बत की डोर