घर्र घर्र घूमता है पहिया
गुबार
उठ रही है अंधकार में
पीली-आसमानी
उठ रही है पीड़ा-आस्था भी
गड्डमड्ड आवाजों के बुलबुलों में
फटता फूटता फोड़ा
काल की देह पर
अंधेरा है
और काले सम्मोहन में मूर्छित विश्व
फिर एक फूँक में
सब व्यापार ...
देह जीवन प्यार
आक्रामक हिंसक
जंगलों में चौपालों में
शहर में बाज़ारों में
मेरी साँसों में
लिप्सित भोग का
काला राक्षस