एक छाया-सा चलता है मेरे साथ
धीरे-धीरे और सघन फिर वाचाल
बुदबुदाता है कान में
हड़प कर मेरी देह
जीवित सच-सा
प्रति-सृष्टि कर मुझे
निकल जाता है
अब मैं अपनी छाया हूँ। वह नहीं जो था।
पुकारता भटकता हूँ
मुझे कोई नहीं पहचानता
मैं किसी को नज़र नहीं आता
उसके हाथों में जादू है
जिसे भी छूता है बदल देता है
बना रहा है प्रति मानव
सबके साथ छाया-सा चला है वह
अब कोई किसी को नहीं पहचानता
अब कोई किसी को नज़र नहीं आता
प्रति मानव !
कोई किसी को नज़र नहीं आता