तुमने काली अंगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
इच्छाएँ अनंत असंतोष हिंसक
कहाँ है आदमी ?
उत्तेजित शोर यह
छूट-छिटक कर उड़ी इच्छाओं का
गाता है
हारी हुई नस्लों के पराभूत विजय-गीत
खारिज है कवि की आवाज़
यातना की आदमख़ोर रातों में
एक गीत की उम्मीद लिए फिर भी खड़ा हूँ
ढेर गिनता
पूरब को ताकता
तुमने काली अंगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
खोल दिया सदियों से जकड़े
मेरे पशु को उन्मुक्त भोग की लम्बी रातों की हिंसा में