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काला सूरज / केशव

मुझे नहीं चाहिए
शब्द
एहसास के वृक्ष को
नंगा कर जो
पतझर के पत्तों की तरह
कुचले जाते हैं पाँवों तले
और शून्य ताकता वृक्ष
फिर से भरने की प्रतीक्षा में

नँगा होने और भरने के बीच
इस अंतराल को
जोड़ूँ व्यक्तित्व के किस रेशे से
जबकि
सारी की सारी प्रक्रिया
रबड़ के टुकड़े की मानिंद
हो जाती है पूर्ववत

इन चमकते हुए
पत्थरों की
ठोस और ठंडी चमक से
कब तक
रह सकता हूँ चौंधियाया

सरपट दौड़ती जिंदगी के साथ
भाग रहा हूँ
हाथों में
महज़ एक पोस्टर थामे
अंकित है जिस पर
लुढ़कता काला सूरज
इर्द-गिर्द जुड़ी एक भीड़
देख रही तमाशा

इन सब पर
लिखता हूँ कविताएँ
मनचाहा प्रयोग करता हूँ
शब्दों का
पर सूरज रंग बदलने की बजाय
हो जाता है और भी स्याह
चुक जाते हैं शब्द
रह जाता हूँ मैं
केवल मैं
पत्रहीन तरु-सा
लटका शून्य में
भरकर भी
न भरने वाले
इस सूनेपन के हाथों में
महज एक यन्त्र सा.