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कालिदास के मेघ से / ओमप्रकाश सारस्वत

लगभग अढ़ाई-हज़ार साल की
इस लम्बी अवधि के बीच
फिर किसी मेघ को
किसी कालिदास ने
दोबारा
नहीं भेजा
किसी अलका नें


फिर नहीं पूछा कुशल समाचार
कि धनयति के क्रोध से
(या कामी कुबेर की ईर्ष्या से,क्या जानें)
कोई दूसरा यक्ष भी हुआ होगा शापित
या प्रेमपरितपित

या उसकी प्राणप्रिया भी
बिलखी होगी
शत-शत गर्जन-संग

बिजली की कौंध में
सुबक-सुबक कर

यहाँ फिर किसी मेघ ने

नहीं की परवाह
कि यक्ष की
दूसरी भावजों का
क्या हुआ होगा

उनकी बेणियों में
इसने सजाए होंगे
शूल-हर कूल
उनके वस्त्र अब तलक
कितने मैले हो गये होंगे
सूत-सूत खारा अश्रुजन पीते हुए
दिन-रात

और वे कितनी बार
कुबेर को कोसती हुई
मूर्च्छना में
पुकार-पुकार उठी होंगी
प्रियतम! प्रियतम!

या उनकी प्यारी सारिकाएं
अब तलक
कितना झूठ बोल चुकी होंगी
अपनी मालकिनों का
सहेलियों की तरह
दिल बहलाने को
कि प्रियतम
अबकी बार बरसात में
अबश्य आ जाएंगे
(अनुमान है;
उनका पक्षियों के
सत्यवचनों पर से भी
विश्वास उठ चुका होगा)

या कितनी बार
उनका अभिशप्त विरही मन
रति से पूछ चुका होता
प्रियतम से अनंग रूप में
मिलने का उपाय

और तुम्हारे समेत
हर संदेश हर को
कितनी बार कोस चुकी होंगी वे
प्रिया वियोग के
अगणित शापों से
अतः कहो मेघ!
क्या तुम प्रशंसाकामी
कामचारी नहीं हो
क्या तुम्हारी आँख
केवल एक के ही
आँसू नहीं देखती है!

(हमारे यहाँ
एक के ही आँसुओं को
सृष्टि का अंतिम वियोग
मान लेने की प्रथा है!)

मित्र ! सच-सच कहो
क्या तुमने
कालिदास का संदेश
इसलिए नहीं पहुँचाया
कि वे कवि थे

एक बहुत बड़े कवि
वे तुम्हारी महिमा के छंद को
कर सकते थे विस्तरित
अर्थवीचियों की तरह
शब्दसिंधु की चरम सीमा तक
पृथ्वी के एक छोर से
दूसरे छोर तक

या तुम्हारी कर सकते थे बड़ाई
किसी चापलूसी भरे श्लोक से
तुम्हारे फूल कर कुप्पा हो जाने
की हद तक
(यहाँ उपकारी का ही प्रत्युपकार होता है)

अतः चूंकि हम
तुम्हारे गीत नहीं गा सकते
तुम्हें सैंक़ड़ों सब्ज़ बाग नहीं दिखा सकते
तुम्हारे लिए किसी विशाला-श्रीविशाला
या किसी आम्रकूट की सैर
या किसी गम्भीरा से
रति प्रसंग का
योग नहीं जुटा सकते
(क्योंकि हम कवि तो हैं
पर उत्कोच दाता नहीं)

इसलिए तुम जो
सत्य को ज़मीन की तरह न लेकर
ब्योम की तरह लेने के आदि हो
हमारी अलका में नहीं जा सकते

क्योंकि हमारी अलका
स्वर्ग की भगिनी नहीं
इस भूतल की बेटी है

अतः तुम हमारी
प्राणप्रियाओं को
नहीं बता सकते कि
वे अगले आषाढ़ से पहले
भीगा तन
प्यार भरा मन लेकर
दौड़े चले आएँगे
उन्मुक्त बाहू
तुम्हारे पास
शापमुक्त होते ही

अतः हम जानते हैं कि
तुम हमारे मार्ग के
हिमालय हो सकते हो
दयालुस्वभाव रखते हुए भी
दूसरों का अहित करने को
ठोस होकर

पर एक बात तय मानो कि
गीत गाना हमारी प्रकृति नहीं

हम फुसला के;
बहका के
काम नहीं कराते

अतः तुम भले ही
अगले अठाई हज़ार सालों तक
कालिदास के
दोबारा पैदा होने का
इंतज़ार करते रहो
और अपनी
जैसी भी छवि गढ़ते रहो

पर सुनो !
हम वर्ष-दर-वर्ष
और यथार्थ
होते जाएँगे
और तुम
साल-दर-साल
और-और प्रशंसापेक्षी।