कालीदह-जल ऊपर सोहत।
करि कालिय-उद्धार सु निकसत बाहर, सुर-मुनि-जन-मन मोहत॥
कियौ सिंगार बिबिध बिधि अनुपम कालिय की घरिनी मिलि सारी।
मधुर रूप-सुंदरता पर सब त्रिभुवन की सुन्दरता वारी॥
मुसुकत मधुर मुरलि धरि अधरनि परम दिव्य रस-सरि बिस्तारत।
भव-दुख-दावानल-निर्वापित करत, सकल जंजाल निवारत॥