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काली स्त्रियाँ / रश्मि विभा त्रिपाठी

स्त्रियाँ काली नहीं होतीं
काली हो जाती हैं
तपती रहती हैं
आशाएँ, आकांक्षाएँ
मन की भट्टी में
प्राय: सुलगती रहती हैं
गीली लकड़ियों के साथ-साथ
घण्टों, दिनों, महीनों व सालों-साल
धुआँ-धुआँ हो जाती हैं
आँख खुलते ही
बुहारने लगती हैं राख
चढ़ा देती हैं चूल्हे पर
पुन: अधपके स्वप्नों की तरकारी
खौलते-खौलते जल जाती है
जला-भुना खाती हैं
काली स्त्रियाँ
जन्मजात काली नहीं होतीं
काली हो जाती हैं
प्रतिदिन बढ़ती
उलाहनों की प्रचंड लौ
रक्त की लालिमा
निगल लेती है
कोयला हो जाती है
गुलाबी त्वचा
उपेक्षाओं की
कालिमा से
शेष औरतें मिल
उनका शृंगार करती हैं
चलता रहता है यह कृत्य
उनके जन्म से विवाह पर्यंत
उबटन का यत्न फीका पड़ जाता है
हल्दिया रंग उन पर कभी नहीं चढ़ पाता है
जैसे कि माया का रंग मानव पर
हो जाते हैं वशीभूत
खनकते स्वर्णिम सिक्कों की
अनुगूँज के पीछे चलते हैं
अनुसरण करते हुए
काली स्त्रियाँ
जन्म से ही काली नहीं होतीं
कल्पनाओं के क्षितिज पर
चढ़ती हैं चमकते तारे की भाँति
घूमती फिरती हैं
यकायक टूट जाती हैं
खो देती हैं सम्पूर्ण रौशनी
स्याह हो जाती हैं
स्त्रियाँ काली नहीं होतीं
हो जाती हैं काली
सूर्य की अरगनी पर
कपड़े सुखाते
तपते जेठ की दुपहरी में नंगी एड़ियों से
छत पर कबूतरों की बीट बुहारते
रात हो जाती हैं
काली स्त्रियाँ
जिनके भय से काँपती हैं बलाएँ
लौट जाती हैं जिन्हें देख
द्वार से दुख संताप- व्यथाएँ
काली स्त्रियाँ
सुरक्षा कवच होती हैं
अपने घर-आँगन की खुशियों का
मगर फिर भी नहीं पातीं हैं
तृण- मात्र
सम्मान का सुख अपने लिए
स्वयं असुरक्षा में जीवन बिताती हैं
सौंदर्य धारण किए चेहरे
उन्हें चिढ़ाते हैं
जैसे वह हँसी का पात्र हैं
कुरूपता का अहसास कराते हैं
हँसते हैं उनके श्याम रंग पर
थोड़ा-थोड़ा विष पीती हैं
वह फिर भी जीती हैं
नीले कण्ठ में लिये
कोकिल मिठास

मगर धीरे-धीरे
काल की काली छाया
घेर लेती है
हीन भावना से घिरी हुई
काली स्त्रियाँ

भावनाओं के चश्मे से
जब नहीं देखते रिश्ते उन्हें
जिनके लिए वह अब तक जीती रही हैं
मूँद लेती हैं मुख, फेर लेती हैं नजर
संग होते दुर्व्यवहार की साक्षी
सुन करुण रुदन सरस्वती
ले जाती हैं उन्हें
अनंत यात्रा पर
प्रस्थान कर जातीं
सदैव के लिये 'काली'
देव स्वागत करते
गृह लक्ष्मी आत्मा का
और घर भोगता है
अनंत काल तक घोर शापित जीवन।