काले चश्में में चेहरा आकर्षक है।
पता नहीं वह लेखक या समीक्षक है।
लिखता लेख तो ख़ूब ही अपने मन से है,
मगर नदारद रहता उसका शीर्षक है।
देखते हैं सब उसको चाय के ढाबे में,
करता रहता ना जाने क्यों बकबक है।
चुप रहने की उसे हिदायत मिलती जब,
कहता बोलने की आज़ादी है, हक़ है।
मिलती उसे नसीहत नेता बनने की,
वह तो सफलता पा लेता तब बेशक है।
साहित्य का वह रोज़ ही बंटाढार करे,
रचना से ज़्यादा वह लगता मारक है।
ख़ैर नहीं है उसका नाम लेना ‘प्रभात’,
उसके रिश्ते में दलहीन विधायक है।