दोपहर की रूपहली धूप को
जाते हुए मैंने भी देखा
ऊँचे नंगे पर्वतों से
एक काले बादल का
टुकड़ा आया
और धूप की सारी किरणों को
समेट लिया
नगर-नगर अंधियारा फैला
घर-घर से
चमगादड़ों की चीखें गूंजी
पेड़-पेड़ पर
उल्लू बोले
बादल के इस
काले बिछू ने
बुद्धि को भी डंक मार दिया
लोग एक दूसरे का मांस
नोचने लगे
बेटे ने बाप को
काट के फेंका
भाई ने भाई का
गला घोंटा
अब हर एक के हाथ में
टूटी तलवारें
हर एक के कपड़ों पर
अपने ही ख़ून की छींटे
हर दिशा हैं
लाशों के ढेर
उन पर झपटते
आवारा कुत्ते
मंडलाती चीलें और कौए
मैं
हड्डियों के पंजरे के अन्दर
अपनी आँखों की ठिठकी ठहरी
सहमी बूँदों में
सिमट गया हूँ
कौए,चीलें और
आवारा कुत्ते
मुझको एक हड्डियों का
पिंजरा समझ कर छोड़ गये हैं
और मेरी भर्राई आँखों में
यह रिसता सपना
कि उस दोपहर को
केवल एक बार, मैं
फिर से देखूँ
हड्डियों के पिंजरे से निकलूँ
आकाशों में उड़ जाऊँ।