बाज़ारों सरकटे चमकीले बुत पसरे
चेहरे पर स्वर्ण परत हर दँगे बाद पुती
सुन्दरता क्या वाहियात चीज़ निकली !
भीतर भीतर सड़ते उफनाते हैं ख़याल
गन्ध प्राणलेवा के ऊपर से यह सिंगार
अ-लँकृति भी क्या वाहियात चीज़ निकली !
समय प्रतिगामी हुआ
हत्यारे प्रगतिशील
तुलना भी क्या वाहियात चीज़ निकली !
मुक्ति नैपकिन हुई
सुपरमॉल कल्पवृक्ष
उपमा भी क्या वाहियात चीज़ निकली !
बेसी की फचर-फच्च
काम पड़े मुँह-माटी
कविता भी क्या वाहियात चीज़ निकली !