काश धूप को भी रख पाती मैं डिब्बे में भर कर
जाड़े में जब भी सूरज छिप जाता अपने घर में
बूढ़े काका, मुनिया भी जब दुबके हों बिस्तर में
तब मैं उनको कुछ गर्मी डिब्बे से देती जाकर
कई दिनों तक बिना धूप के होता जब जब मौसम
गमले के पौधे मुरझाते होने लगते बेदम
तब उनको भी धूप बाँटकर दुख उनके लेती हर
रातों को जब सूरज सोया रहता अपने घर में
और अँधेरे में राही भटके सुनसान डगर में
वहाँ उजाला मैं दे आती दूर भगाती सब डर