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कितना अच्छा होता / प्रदीप शुक्ल

गर्मी से
बिल्लाकर बच्चे
शोर मचाएँ सारे
कितना अच्छा होता, जो घर
होता नदी किनारे

नदी किनारे
बाग़ आम का
पेड़ों पर चढ़ जाते
और अधपका आम तोड़ कर
बड़े मज़े से खाते

चीर-फाड़ कर खा जाते हम
छिलके कौन उतारे

रेतीली ज़मीन
के ऊपर
मिल जाते खरबूजे
घर पर भी ले कर आते हम
बड़े-बड़े तरबूजे

दादा जी बस लिए लकुटिया
होते साथ हमारे

छोटा बछड़ा
गाय साथ में
बँधा नीम के नीचे
यहाँ शहर में सोच रहा मैं
यह सब आँखें मीचे

एक अदद जामुन का बिरवा
होता खड़ा दुआरे

कितना अच्छा होता, जो घर
होता नदी किनारे।