कितनी विपदायें तुम झेले,
पग-पग पर जब कठिनाई थी।
अनजान जगत जब हँसता था,
गम के आँसू को पी-पी कर।
उस दिन भी थे हँसते-खेले,
कितनी विपदायें तुम झेले।
जिस दिन काँटों के जाल बिछे,
ज्वाला जिस दिन विकराल जली।
उस दिन भी तो जय-विजय लिये,
तुम ही थे हँसते बच निकले,
कितनी विपदायें तुम झेले।
दुश्मन की टोली जब निकली,
था तेरा महल गिराने को।
फाटक पर आकर तो वे ही,
चरणों में झुक थे लगे गले।
कितनी विपदायें तुम झेले।
बुझने को ही तो निकली है,
छोटी विरोध चिनगारी यह।
जब लपट आग की जली नहीं,
चिनगारी लेगी क्या कर ले?
कितनी विपदायें तुम झेले।
ईमान और कर्मठता का,
सम्बल जो रहा तुम्हारा है।
दृढ़ता से कायम रह उस पर,
अपनी मंजिल पर बढ़े चले।
कितनी विपदायें तुम झेले।
ये दुःख न यदि तुम पर आते,
क्या गीत तुम्हारे बन पाते?
इन गीतों को ही गा-गा कर,
जीवन में खुशियाँ तुम पाले।
कितनी विपदायें तुम झेले।
-देसुआ,
12.2.1972 ई.