Last modified on 4 मार्च 2020, at 18:28

कितने दिन हुए / ऋचा दीपक कर्पे

कितने दिन हुए
न कुछ सोचा, न लिखा!
चलो आज कविता लिखी जाय...
बैठा जाय कलम ले कर...
आज तो लिखना ही है!
यह ठान कर...

किताब छपवानी है
कवयित्री कहलाती हो!
और ...
बीस कविताएँ भी न लिखी
अब तक!
खुद को ही एक फटकार लगाई...
लिखो तो ज़रा, कहकर...

दिमाग दौडने लगा
विषयों की खोज में
सोचने लगा देश पर लिखूँ
या देशभक्ति पर
फूल पर लिखूँ या पेड़ की पत्ती पर?
चुनावी लहर पर लिखूँ
या तपती गर्मी के कहर पर?

देश में भ्रष्टाचार भी है और
महिलाओं पर हो रहा
अत्याचार भी है!
निजी पाठशालाओं की
चलती मनमानी है
तो अस्पतालों में बेईमानी भी है

फिर सोचा,
चलो पहाडों-झरनो पर लिखा जाय
या पवित्र निश्चल प्रेम का ही
विषय चुना जाय...!

बच्चों का बचपन, भँवरे की गुंजन
कड़ी धूप, खेतों में काम करता किसान
उधर सरहद पर तैनात जवान
सोचा बूढ़ी माँ पर ही
कुछ लिख दिया जाय...

दिमाग दौड़ता ही रहा
दिशाहीन घोडे की तरह
मन के आसमान में विचार
मेघ बन कर गरजे...
परंतु यथार्थ की धरा पर
एक बूंद भी न बरसे...

थक हार कर
फिर रख दी कलम
यूँ सोच कर तो
कविता लिखना न हो पाएगा
यह तो अंदाज़-ए-इश्क है
जब होना होगा हो जाएगा...