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कितने हाथों में यहां / गौतम राजरिशी

कितने हाथों में यहाँ हैं कितने पत्थर, गौर कर
फिर भी उठ-उठ आ गये हैं कितने ही सर, गौर कर

आसमां तक जा चढ़ा संसेक्स अपने देश का
चीथड़े हैं फिर भी बचपन के बदन पर, गौर कर

जो भी पढ़ ले आँखें मेरी, मुझको दीवाना कहे
तू भी तो इनको कभी फुर्सत से पढ़ कर गौर कर

शहर में बढती इमारत पर इमारत देख कर
मेरी बस्ती का वो बूढा कांपता 'बर', गौर कर

यार जब-तब घूम आते हैं विदेशों में, मगर
अपनी तो बस है कवायद घर से दफ्तर, गौर कर

उनके ही हाथों से देखो बिक रहा हिन्दोस्तां
है जिन्होंने डाल रक्खा तन पे खद्दर, गौर कर

इक तेरे 'ना' कहने से अब कुछ बदल सकता नहीं
मैं सिपाही-सा डटा हूँ मोरचे पर, गौर कर

{त्रैमासिक शेष, जुलाई-सितम्बर 2009}