किन्नर / यतीश कुमार

साथ भात नहीं खा सकता
पर चावल के दाने
तुम पर ही फेंकता हूँ

नौ महीने के
अविरल प्रेम का
मैं भी पैग़ाम था
गर्भवधी कटने तक
मैं भी इंसान था

अब मैं इंसानों की श्रेणी से इतर...
इंसानों को ही आशीषें बाँटता
त्रिशंकु हूँ

ब्रह्मा की छाया से निकल
नीलकंठ के विष में घुल गया हूँ मैं

सर्पमुखों के बीच सोता
अश्वमुखों का वंशज
मैं मंगल मुखी हूँ

सुख मेरी दहलीज़ में
दाखिल न हो सका
इसलिए मैं तुम्हारे
हर सुख में शामिल हूँ

मौत मुक्ति है
और
मातम से मुझे परहेज़

न तो कोई गाँव
न तो कोई शहर
मेरा समूह ही मेरा देश है

किन्नौर से संसद तक का सफ़र
त्रेतायुग से कलयुग जितना लम्बा रहा

समानता का हक़ मिलने पर भी
अवहेलना की नसें
मुझसे जुड़ी रह गईं
और अब भी मैं
समाज की बजाई हुई ताली में
एक चीख मात्र हूँ

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