किन कोनों में छिपोगे
कब तक छिपोगे
किस-किस से छिपोगे
बार-बार दुहराता हूँ ग़लतियाँ
रह-रह कर ढूंढ़ता हूँ गुफ़ाएँ
दुबक सकूँ कहीं कि कोई न जान पाए
मल लूँ बदन में स्याह
लंगोट पहन जटाएँ
बन जाऊँ बेनाम भिक्षु
पर भूख है कि लगती ही है
निकलता हूँ गुफ़ाओं से
लोगों की नज़रें अपनी गुफ़ाएँ ढूंढती हैं
सोचता हूँ मुझे ही देखती हैं मुझ से परे जाती निगाहें
कटते दिन-रात इन्हीं प्रवंचनाओं में।