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कियौ महारास प्रभु बन में / ब्रजभाषा

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

कियौ महारास प्रभु बन में, वृन्दावन गुल्म लतन में॥
बन की शोभा अति प्यारी, जहाँ फूल रही फुलवारी।
सोलह हजार ब्रजनारी, द्वै द्वै न बीच एक गिरिधारी॥
झ़ड़-ताथे-ताथेई नचत घूँघरू बजत झूम झन झनन।
सारंगी सनन करत तमूना तनन॥

सप्त सुरन सों बजत बाँसुरी, शोर भयौ त्रिभुवन में। वृ.
बंशी को घोर भयौ भारी, मोहे सुन मुनि तप-धारी।
जड़ पशु पक्षी नर-नारी, शिव-समाधि खुल गई तारी॥
झड़ सुन जमुना जल भयौ अचल, सिथिल भये सकल।
जीव बनचारी, मनमोहन बीन बजाय मोहिनी डारी॥
जहाँ के तहाँ थिर रहे परी धुन बंशी की श्रवनन में। वृ.

जब उठ धाये त्रिपुरारी, जमुना कहै रोक अगारी।
गुरु दीक्षा लेओ हमारी, जब करौ रास की त्यारी॥
झड़ नहीं पुरुषकौ अधिकार, सजाशृंगार नारि बनजाओ।
तब महारास के दरशन परसन पाओ।
जमुना के बचन सुने, शिव जान गये सब मन में॥ वृ.

जब खाय भंग कौ गोला, जमुना में धोय लियौ चोला।
गोपी बन गये बंभोला, यों नवल नार अनबोला॥
झड़ जहाँ है रह्यौ रास विलास, पहुंच गये पास, भये अनुरागे
शिव शंकर सखियन संग नाचने लागे।
भूल गये कैलाश वास, हर है रहे मगन लगन में। वृ.

गोपिन संग नृत्य कर्यो है, हिरदे आनन्द भर्यो है।
जब शिव पहिचान पर्यौ है, गोपेश्वर नाम धरयौ है॥
झड़-सब गोपी भई प्रसन्न, धन्य प्रभु धन्य मधुर बीनाकी
कर महारास निशि कीनी छै महीना की।
‘घासीराम’ कृपा सों छीतर बस रह्यौ गोवरधन में॥ वृ.