देख रहा हूँ चमक रही है
दिन की मौत सुनहली
जितनी व्यथा-कथा कहनी थी
किरनों ने सब कह ली
छुपे सत्य को खोज रहा मैं
फिरता मारा-मारा
किरनों की लकुटी ही मेरा
बनती सदा सहारा
अब तो डर कर भाग गये हैं
किरनों के भी छौने
कुचल न जायें कहीं भीड़ में
हम जो इतने बौने
जो मिठास देनी थी मुझको
रात न दे कर मुकरी
बिना नींद की रात कट गई
एक जिन्दगी गुजरी
प्रात अरुण से ले कर मैंने
यह संध्या की लाली
बड़े जतन से धूप बचा कर
बेटी जैसी पाली
मुझे छोड़ अब जाती पीहर
रहनी थी सो रह ली
जितनी पुरवा-पछुवा बहनी थी
वह सारी बह ली