किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ?
किसको कहाँ
असीसें भेजें
किस-किस की चुप्पी को कोसें ?
फिक्रमंद इन-उनकी ख़ातिर
अपनी ही गो ख़बर नहीं है ।
समय रुक गया है पहाड़-सा
बजता कोई गजर नहीं है ।
पहचाने खो गई हमारी
किनको छोड़ें, किन्हें भरोसें ?
रकबे बचे रह गए थे जो
इस सीलिंग, उस चकबंदी से,
लाख जतनकर बचा न पाए
हम एरावत औ’ नंदी से ।
रखवाले सो रहे तानकर -
प्रजातंत्र को कैसे दोषें ?
प्राणों पर बन आए उजागर
शरद, शिशिर हेमंतों के दिन,
विगर पूछते - हमसे बैठे
थानेदार बसंतों के दिन ।
अब न रहीं वो रितुएँ जिनके
जूड़े में अपनापन खोंसें ।
किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ।