शमा तो जली
पिघली आहिस्त-आहिस्ते
मगर किसके लिए !
दर खुले रहे, परदे हटे रहे
होठों पे से गीत गिरे सिसके-सिसके
मगर किसके लिए !
सहर में देखी
लिखी तकिये पर एक दास्ताँ,
दूब चुराती रही आँखों से उल्फ़त
ढलने को हलके-हलके
मगर किसके लिए !
शमा तो जली
पिघली आहिस्त-आहिस्ते
मगर किसके लिए !
दर खुले रहे, परदे हटे रहे
होठों पे से गीत गिरे सिसके-सिसके
मगर किसके लिए !
सहर में देखी
लिखी तकिये पर एक दास्ताँ,
दूब चुराती रही आँखों से उल्फ़त
ढलने को हलके-हलके
मगर किसके लिए !