किसको दूँ
सुधि-उजली तरल रात किसको दूँ ?
कौन यहाँ सिर्फ़ एक सन्नाटा
गहरता हवाओं में
शीशे की किर्च सरीखा ’काँटा’
रेंगता शिराओं में
तुम्हीं कहो
जी की अनकही बात किसको दूँ ?
पीठ दिए बैठी हैं दीवारें
कानों पर हाथ धरे
खिड़की से झाँक रही बौछारें
अगवानी कौन करे
बोलो ना ?
अनियन्त्रित दृग-प्रपात किसको दूँ ?
धूप-छाँह वाली इस धरती पर
दुर्गों की छायाएँ
टूट गईं किस्तों में चल-चल कर
मोहरों की कायाएँ
गतिविहीन
जीवन की यह बिसात किसको दूँ ?